Sunday, October 24, 2010

ग्लोबल नायिकाओं के गुलाम किरदार

पार्वती, प्रेरणा, तुलसी के बाद ग्लोबल सीरियल की दुनिया में कुछ नई सुपर नायिकाओं ने जगह पक्की कर ली है। इच्छा, सीया, आनंदी, लाली, प्रतीज्ञा, ज्योति, और न जाने कितनी ही छोटे पर्दे की सुपर नायिकाएं डेली सोप में धर्म, मान मर्यादा और बुराई को बर्दाश्त करने की नई लक्ष्मण रेखा खींचती जा रही हैं। ये सभी बुराई प्रूफ हैं, बर्दाश्त करने की इनकी क्षमता अपरमपार है। इन्हें महिमामंडित करने के चक्कर में सीरियल बनाने वाले घरानों ने ऐसी मान्यताओं और सड़ती हुई परंपरा का सहारा लिया है जो किसी भी सूरत में प्रगतिशील महिलाओं की तस्वीर नहीं पेश करता है।
एक सीरियल के एक सीन का जिक्र करना चाहूंगी।
सीन नंबर 1 – बुंदेला खानदान की आलिशान हवेली। हर तरफ रॉयल लुक। एक से बढ़कर एक इंटीरियर। सोफा, कारपेट, झूमर जहां से भी कैमरे का एंगल बनता है, खानदान का रुतबा दिखाता है। हवेली में कई बार नौकर चाकर कंधे पर एक गमछा टांगे, इधर उधर की सफाई करते भी दिख जाते हैं।
सीन नंबर 2 – इसी हवेली का एक कोना। दीवार से लेकर फर्श सभी पर मनहूसियत छायी है। ये कमरा खास तौर पर घर की बड़ी बहू के लिए बनाया गया है। इसका इंटीरियर उसी हिसाब से तय किया गया है। न रंग न रौनक। उसके लिए सोफा तो दूर कुर्सी तक नहीं है। जमीन पर सोती है, चूल्हा फूंक फूंक कर खाना बनाती है। हफ्ते में कम से कम 6 दिन व्रत करती है। क्योंकि वो विधवा है।

“उतरन” की नायिका इच्छा की कष्ट से भरी जिंदगी में एक और दुख की एंट्री। विधवा होने पर वो बुंदेला परिवार की सालों पुरानी दकियानूसी परंपरा का पालन सहर्ष कर रही है। लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाती है, दिन में एक ही बार खाती है, खाना भी खुद पकाती है, नंगे पांव चलती है, पूजा पाठ करती है ...परंपरा और खानदान की मर्यादा के नाम पर डायरेक्टर उसे जो जो करने के लिए कहते हैं वो सब करती है। लेकिन सवाल उठता है कि किस तरह की परंपरा और किस तरह के विचारों का दोहन करके ये चैनल टीआरपी की रेस में आगे भागना चाहते हैं।
विवेकानंद ने कहा था कि समाज में गुलामी चार तरह की होती है। एक है बल की गुलामी। यानि अपने बल पर सब कुछ हासिल करना। मतलब जंगल राज। दूसरी होती है धन की गुलामी। पैसे के दम पर दूसरों को इस्तेमाल की वस्तु समझ लेना। तीसरी होती है मन की गुलामी। ये गुलामी सबसे घातक होती है, क्योंकि इसमें हमला सीधे लोगों की सोच पर किया जाता है। दूसरों को ये एहसास दिला देना कि वो निकृष्ट हैं और मैं उत्कृष्ट हैं। तुम भेड़ बकरी हो, बस मेरे कहे अनुसार चलो। और चौथी गुलामी है पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को अपनी नीजि संपत्ति मानना। और इन सबके बीच आजकल मनोरंजन की दुनिया एक नई गुलामी का बीज बो रही है, और वो है पुरानी कुरीतियों और संस्कारों को बर्दाश्त करने वाली इनकी महिमा मंडित नायिकाओं के उसूलों की गुलामी। यकीन मानें या नहीं..लेकिन बाकि सभी गुलामी से ये गुलामी ज्यादा खतरनाक है। ये पीपल के पेड़ के बीज की तरह अपनी जड़ें घर की नींव सास और बहूओं के बीच फैला रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि पीपल जहां जमता है, उसे ही बाद में उखाड़ फेंकता है।
1982 में एक फिल्म आयी थी प्रेम रोग। निर्देशक थे राज कपूर। आज से 20 साल पहले ही राज कपूर ने विधवाओं पर होने वाले अत्याचारों का विरोध करते हुए समाज को कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा दी थी। मनोरमा ठाकुर बेटी है। अनाथ देवधर को उससे प्यार हो जाता है। मनोरमा की शादी कहीं और हो जाती है। शादी के कुछ ही दिन बाद मनोरमा के मांग का सिंदूर उजड़ जाता है, और हंसने खिलखिलाने की उम्र में उसकी जिंदगी काल कोठरी में कैद हो जाती है। उसे भी नंगे पांव चलना पड़ा, अपना खाना अकेले सांझ होने पर ही पका कर खाना पड़ा, सफेद लिबास उसकी पहचान बन गयी, लोगों के ताने सुनने पड़े। न कोई रंग न कोई सपने। लेकिन नये विचारों वाले देवधर ने विधवा के खिलाफ बने सभी उसूलों का विरोध कर दिया। फिल्म में एक बात काफी सटीक कही गई थी कि ये सभी सड़ी गली कुप्रथाएं बड़े घरों से निकल कर पूरे समाज़ को गंदा कर देती हैं।
ऐसा ही कुछ माहौल हमारे सीरियल्स भी बना रहे हैं। कहने के लिए ये समाज में व्याप्त मुद्दों को उठाते हैं, लेकिन इनके पास समस्या तमाम होती है, हल काफी कम। एक और सीरियल है “बालिका बधू”। ये तो समस्याओं का पिटारा ही बना हुआ है। लेकिन जब हल निकालने की बारी आती है तो इसे दर्जनों एपिसोड लग जाते हैं। सुगना का बाल विवाह हुआ है जो गैर कानूनी है। इससे जनता को कोई सीख मिले, उससे पहले एक और बाल विवाह आनंदी और जगदीश का कर दिया जाता है। सुगना विधवा हो जाती है और दादी सा के कायदे कानूनों के आगे किसी की नहीं चलती। उससे हंसने बोलने के सभी अधिकार छिन जाते हैं। कोई विरोध नहीं कर पाता है, उसके अपने मां बाप भी नहीं। किसी खास स्थिति में ही सुगना की तो शादी हो जाती है, लेकिन उसी सीरियल में भूली और श्याम की ममेरी बहन बाल विधवा हैं, उनका आज तक उद्धार होता नहीं दिखा है। भूली किसी शादी में नहीं जा सकती, उसे अपशकुनी खा जाता है।
अगर जमी हुई सड़ी पुरानी परंपराओं के नाले को खंगाला जाए तो विधवा जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं था। सति प्रथा उसी की काली परछायी है। तब की परंपरा के मुताबिक पति के परलोक सिधारने पर पत्नी स्नानादि करके अपने शरीर पर चंदन तिलक लगाती थी। ब्राह्मणों को दान करती और फिर सूर्य नमस्कार करती हुई अपने पति के शरीर को गोद में रख कर चिता पर बैठ जाया करती थी। बंगाल में विधवा का बाल मुंडवा दिया जाता था ताकि वो सुंदर ही न दिखे। यही नहीं इतिहास और हमारे साहित्य में इस बात की भी चर्चा है कि विधवा का बाल मुंडवाने बनारस लाया जाता था और फिर उनसे पिंड छुटाने के लिए उन्हें वहीं अकेला भटकने के लिए छोड़ दिया जाता था।
मुड़ कर देखेंगे तो समाज की तमाम विसंगतियां हमें दिख जाएंगी। बिहार, राजस्थान,हरियाणा, बंगाल का अनपढ़ समाज आज भी उन कुरीतियों को मानता है और उन्हें ही अपना आर्दश बताता है। पुरुष प्रधान समाज अपनी सहूलियत के मुताबिक समाज के कायदे कानून बनाता चलता है और उनकी चक्की में पिसती हैं तो सिर्फ औरतें। किसी बेवा को डायन बता कर गांव में नंगा घुमाया जाता है। गरीब की इज्जत को दबंग अपने पैरों की जूती मानते हैं, दहेज का दानव आज भी कई घरों में बहुओं के लिए काल बना हुआ है। बेटे की ख्वाहिश में बेटियां का दम तोड़ दिया जाता है। सीरियल्स में आपको समाज ऐसा हर वर्ग दिखता है। एक और चरित्र हैं, न आना इस देस मेरी लाड़ो की अम्मा जी। खुद औरत हैं, लेकिन गांव में बेटी की किलकारी नहीं सुन सकती। सीरियल को शुरू हुए पौने दो साल हो चुके हैं। लेकिन अम्मा जी का कोई बाल भी बांका नहीं कर सका।
सामाजिक मुद्दों पर सीरियल बनाना गलत नहीं है। सिल्वर स्क्रीन हो या छोटा पर्दा। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के ये बेहतरीन माध्यम है। लेकिन बात तब बने न जब समस्या हो और फिर उनका निदान भी। बुराई हो और फिर अच्छाई की उसपर विजय भी। प्रगतिशील विचारों की बुनियाद रखी गई हो, नायिकाएं समाज में क्रांति ला रही हों। फिल्मों में तो तीन घंटें में समस्या का समाधान दिख जाता है, लेकिन इन सीरियलों में नायिका कब विरोध करेगी, कब वो मंगलसूत्र और सुहाग से ऊपर उठकर अपनी कुचलती जिंदगी के हक में फैसला करेगी। डेली सोप की नायिकाएं कब अधर्म के खिलाफ दुर्गा का रूप धारण करेंगी। आखिर कब।

शिल्पी रंजन

आसमान में और भी तारें...

आसमान में और भी तारें...

स्कूल कॉलेजों या आम जनता के बीच एक सर्वेक्षण हो। सर्वेक्षण में एक सवाल किया जाए कि डॉक्टर डग्गूवती रामानायडू कौन हैं। पूरे उत्तर भारत में गिन कर ही कोई इसका सही उत्तर दे सकेगा। भले ही ये नाम आज की तारीख में अपना एक अलग मायने रखता है। लेकिन किसने देखा, किसने पढ़ा, किसने इस नाम पर जिक्र ही किया। न तो खबरों की हेड लाइन ही बन सका ये नाम और न ही मुख्य पृष्ठ पर 3/ 2.5 सेंटीमीटर की तस्वीर ही छपी। कौन है ये शख्स। नाम से दक्षिण भारतीय लगता है, लेकिन इस नाम के मायने क्या हैं उतर भारतीयों के लिए।
डग्गूवती रामानायडू साल को 2009 के लिए फिल्म जगत का सर्वश्रेष्ठ सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रामानायडू ने तेलगू के अलावा हिन्दी, तमिल, कन्नड़ और बंगला भाषा में कुल मिलकार तकरीबन डेढ़ सौ फिल्में बनायी हैं। रामानायडू का नाम गिनीज़ बुक ऑफ वल्ड रिकॉर्ड में सबसे अधिक और सफल फिल्में बनाने वाले निर्माता के तौर पर दर्ज हो चुका है। भारत सरकार ने तो इनकी योग्यता को काफी देर से सराहा है। 22 अक्टूबर को महामहिम के हाथों डॉक्टर रामायडू सम्मानित किये गये। खबरें बनी, महानायक को सम्मान। खबरिया चैनलों की रात की बुलेटिन हो या फिर अखबारों का मुख्य पृष्ठ। हर तरफ सिर्फ महानायक की ही चर्चा। जाहिर सी बात है कि सदी के महानायक की पदवी सिर्फ और सिर्फ अमिताभ बच्चन के नाम है। सदी के इस महानायक को फिल्म पा के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया। अमिताभ बच्चन को पा फिल्म में बेहतरीन अदाकारी के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से लेकर दर्जनों पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके हैं। और अमिताभ के काम पर किसी को न तो शक है और न ही कोई सवाल। अमिताभ आज भी यंग हैं, अमिताभ में आज भी शोले है, अमिताभ आज भी महान हैं, अमिताभ बेमिसाल हैं, अमिताभ की आज भी हर तरफ शान है। अमिताभ बच्चन को राष्ट्रीय पुरस्कार पाने का यह गौरव चौथी बार हासिल हुआ है।
अमिताभ सम्मानित किये गये, ये गौरव की बात है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि दूसरे का सम्मान कम या फिर छोटा है। उत्तरभारतीय बॉलीवुड के दिवानें हैं। हिन्दी जानने वाले जाहिर है कि दूसरी भाषा में मनोरंजन के लिए सिनेमा घरों तक नहीं जाएंगे। लोगों की भाषा की अपनी अपनी सीमाएं हैं। लेकिन राष्ट्रीय सम्मान क्षेत्रीयता से ऊपर उठ कर दिया जाता है। और हमें इस सम्मान के प्रति सम्मान रखना चाहिए। और इसमें अहम भूमिका सरकार के साथ साथ मीडिया की भी बनती है। किसी को दादा साहब फाल्के पुरस्कार की अहमियत समझाने की जरूरत नहीं है, फिर भी क्यों हेड लाइन से रामानायडू का नाम नदारत रहा, क्यों अखबरों के मुख्य पृष्ठ पर उनकी तस्वीर को जगह नही दी गई, क्यों बार बार रामानायडू का नाम दूसरी पंक्ति में लिया गया। ये दुर्भाग्य की ही बात है। यहां तुलना रामायडू और अमिताभ बच्चन की नहीं है, यहां आम जनता को देश की देश की दूसरी महान हस्तियों की उपलब्धियों से अवगत कराने की भी है। सरकार, अखबार, चैनल अगर इनकी बातें नहीं करेगा तो आम जनता कैसे जानेगी कि दक्षिण के इस निर्माता ने कन्नड़, तेलगू, तमिल के अलावा हिन्दी और बंगला में भी फिल्में बनायी है। तोहफा,बंदिश, अनाड़ी, हम आपके दिल में रहते हैं फिल्मों के निर्माता रामायडू रहें हैं। हिन्दी में ही उन्होंने “हमारी बेटी” बनायी है, जिसमें एक विकलांग लड़की के संघर्ष की कहानी है। ये कहानी बताती है कि जिंदगी की विषम परिस्थितियों में जब शरीर और किस्मत दोनों साथ न दें तब हौसलों से मंजिल हासिल की जाती है।
रामानयाडू की उपलब्धियों का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमारा समाज एक भेड़ चाल पर चलने का आदी होता जा रहा है। कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले तक कौन जानता था देश के दूसरे खेलों में भी इतनी प्रतिभा छिपी हुई है। थैंक्स मां के बारे में कितने लोग जानते हैं इसे इस साल कान फिल्म समारोह में सम्मानित किया गया। हिन्दी फिल्म भिंडी बाजार के बारे में कितने लोगों को मालूम होगा। कहना का सिर्फ एक ही मतलब है कि बाजारवाद पर आधारित खबरों की दुनिया समाज को सिर्फ चकाचौंध से रू-ब-रू कराती है। लेकिन आसमान में और भी तारें हैं जिन्हें करीब से जाना जाए तो वो भी हमारे सूरज की ही तरह दीप्तिमान है।

शिल्पी रंजन

Tuesday, September 14, 2010


ये हैं दिव्या बसंल। फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिव्या बंसल। हमारे आपके लिए हो सकता है कि ये नाम नया हो.... लेकिन आज सुबह के अखबार में जब इस तस्वीर को मैंने देखा तो न जाने कैसे दिमाग के किसी कोने में जाकर ये तस्वीर स्टिल हो गयी है। बार बार ध्यान आ रहा है इस महिला अफसर का। इसकी आंखों को मैं पढ़ना चाह रही हूं...इसकी सलामी, इसके गर्व मुझे भीतर से झकझोर रहे हैं। सामने ताबूत है, और ताबूत पर फूलों से श्रद्धांजलि दी गयी है। ये श्रद्धांजलि दिव्या बसंल अपने शहीद पति को दे रही है जिनकी मौत हेलिकॉप्टर दुर्घटना में हो गयी है। फ्लाइट लेफ्टिनेंट दिव्या बंसल के पति स्क्वाइडन लीडर गौरव वर्मा की झारखंड में एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। आम भारतीय महिलाओं के ऊपर जब ऐसा दुख टूटता है तब वो अक्सर अपन सुध बुध खो देती है, पति के ताबूत पर सिर पटकतीं, अपनी उजड़ी हुई जिंदगी का मातम मनाती। लेकिन दिव्या ने तब सेना की वर्दी पहन रखी है। और ये वर्दी का उसूल है कि इसे पहन कर कोई नहीं रो सकता है। यानि वर्दी पहनकर भावनाओं में कभी नहीं बहा जा सकता है। और इसी कर्तव्य के पालन के लिए दिव्या ने अपने हर आंसू को शायद पी लिये हैं। ये अपने आप में किसी अग्निपरीक्षा से कम की कठिन घड़ी नहीं है।
ये तस्वीर तो सेना से वरीष्ठ अफसर भी देख रहे होंगे, नीति निर्धाकर भी इससे अनजानें नहीं होगे। ये तस्वीर सिर्फ एक दिव्या की नहीं है.... ये तस्वीर है भारतीय सेना में पूरी ईमानदारी और लगन से काम करने वाली महिला अफसरों की, जो अपने कर्तव्य के सामने नीजि भावनाओं को कभी भी हावी नहीं होने देती हैं। बावजूद इसके सेना में महिलाओं को अपनी बहादुरी, क्षमता की बार बार परीक्षा देनी पड़ती है। फ्रंट पर जाने की बात छोड़ ही दें, यहां महिलाओं को परमानेंट कमीशन देने के लिए भी हाई कोर्ट को दखल देना पड़ा और इसे लेकर वरीष्ठ अफसरों की भौंये तनी हुई है। उन्हें लगता है कि महिलाएं उंगली पकड़कर पौंचा न पकड़ लें।
लेकिन दिव्या बसंल की ये तस्वीर कई सवालों के जवाब हैं। गर्व है दिव्या हमें तुम पर, तुम्हारे हौसले पर, तुम्हारी सहनशीलता पर। गर्व है।

Thursday, August 5, 2010

बोया पेड़ बबूल का तो ......

इन दिनों हर तरफ कॉमन वेल्थ गेम्स की ही चर्चा है। कहने का मतलब कि कम ऑन वेल्थ की ही चर्चा है। हर दिन कोई न कोई नया घोटाला सामने आ रहा है। वाकयी इस खेल ने पूरी दिल्ली की जोगरफी, हिस्ट्री से लेकर केमस्ट्री सभी को बदल कर रख दिया है। अब जिधर भी नज़रें घुमाएं तो लगता है कि देश की राजधानी में नहीं बल्कि घोटालों की राजधानी में पहुंच चुकें हैं। आम आदमी सड़कों पर चलता है, सड़कें तैयार करने में घोटाला, फुटपाथ बनाने में घोटाला। बसों पर चलो तो बस की क्वालिटी में घोटाला। अंधेर नगरी में जो थोड़ी बहुत रौशनी स्ट्रीट लाइट से आती है, वहां भी घोटाला। फिलहाल कॉमनवेल्थ गेम में होने वाले गेम्स के नतीजे क्या होंगे ये तो नहीं मालूम लेकिन इसके प्रिप्रोडक्शन ने देश को दो खेमों में जरूर बांट दिया है। देश भक्त और देश द्रोही। देश द्रोही तो वे हैं जिनके कंधों पर देश का मान बढाने की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन उन्होंने बस अपनी जेबें भरने की जिम्मेदारी निभाई। और बाकि सब, यानि हम,आप,मीडिया, विपक्ष सभी देश भक्तों की फेरहिस्त में आतें हैं। हमें चिंता है देश की, हमें चिंता है देश की इज्जत की, हमें चिंता है कॉमनवेल्थ गेम्स की।
लेकिन एक कहावत सभी ने सुनी होगी कि बोये पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए। ये कहावत दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार, सुरेश कल्माड़ी सरीखे लोगों या सरकारों के लिए नहीं हमारे और आपके लिए भी है। आज हम सभी सुबह सुबह अखबारों में घोटालों के बारे में पढ़तें हैं तो जी खौल उठता है। लेकिन कहा जाए तो क्या बेईमानी का खेल देश में आज पहली बार हो रहा है। देश की बात छोड़ दें। हम और आप... आम आदमी, मीडिया सब इस बेईमानी के खेल के हिस्सा बने हुए है। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से। हम ही खिलातें हैं, कभी मजबूरी में, कभी जुगाड़ में। वक्त बे वक्त। जहां सीधे उंगली से घी नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करतें हैं, नहीं तो चम्मचों का भी इस्तेमाल करतें हैं। देश के बड़े घोटालों की बात नहीं करूंगी। बहुत हड़बड़ी है, रेड लाइट है, लेकिन हल्के से अपनी गाड़ी निकाल लिये। आगे ट्रैफिक हवलदार ने हमें पकड़ा, कहा कि फाइन दो। चालान लगेगा 100रुपये। हम कहतें हैं कि 20-25 रूपये लेकर काम चलता करो। बात 50 में बन गई। हमारी 50 रुपये की बचत।.... घोटाला। 100 रुपये का पूरा पूरा घोटाला। कौन कर रहा है, हम आप। सड़क की ही बात करें। गाड़ी चलाते समय फोन की घंटी बजती है। इमरजेंसी है। और न भी हुआ तो क्या हुआ। ड्राइविंग में एक्सपर्ट हैं। एक हाथ से भी कार फर्राटे से दौड़ा सकतें हैं। ट्रैफिक पुलिस वाले की नज़र पड़ी। सीधे सीधे 1000 रुपये का जुर्माना। मैंगो मैन होगा तो 100-200 में बात को रफा दफा करा लेगा। प्रेस वाला होगा तो अकड़ के साथ गाड़ी पर लाल रंग से बड़े बड़े लेटर्स में लिखे वर्ड को दिखाते हुए कहेगा "प्रेस"। तब भी अगर मामला नहीं बनेगा तो अपने किसी दूसरे रिपोटर से ट्रैफिक पुलिस के किसी सीनियर को फोन करा देगा। ताकि जुर्माना न भरना पड़े। किया न हमनें 1000 रुपयों का घोटाला। हो सकता है कि इसे आप घोटाला नहीं मानें। लेकिन घोटालों की शुरुआत तो हो ही गई। नींव हमने तो डाल ही दी। चाहे अनचाहें ही। एक पासपोर्ट बनवाने का खर्च होता है 1000 रूपये। हमें पासपोर्ट मिलना चाहिए या नहीं,हम पासपोर्ट हासिल करने के लिए वैध हैं भी नहीं, इसकी जांच पुलिस और सुरक्षा एजेंसी करतीं हैं। लेकिन अधिकतर पासपोर्ट अधिकार और पुलिस वालें जांच के नाम पर जम कर जेबें भरतें हैं। आप चाहें या नहीं चाहें। खिलातें हम सभी हैं। कोई मजबूरी में तो कोई सफायी के साथ। ऑफिस ऑफिस का खेल तो हम भी खेल रहें हैं। कॉमनवेल्थ वालों ने थोड़ा ज्यादा खेला है। फर्क बस यही है। क्या इससे पहले हमारा देश ईमानदारों का देश था। क्या इससे पहले घोटालें नहीं हुए थे। 30 जून 2010 को यूके की न्यूज़ एजेंसी रॉयटर ने भारत के 6 बड़े घोटालों की लिस्ट जारी किया है। इसमें आईपीएल मैन ललित मोदी का घोटाला सबसे ऊपर है। दूसरा नंबर एड्स, टीबी, मलेरिया जैसी स्वास्थ्य संबंधी परियोजनाओं में वल्ड बैंक से मिलने वाले पैसों के हेर फेर का है। आरोप खुद वल्ड बैंक ने लगाया है कि देश को 1997 से 2003 के बीच 500मिलियन डॉलर की सहायता राशि दी गई। लेकिन देश का स्वास्थ्य तो नहीं सुधरा, हां कईओं पर तंदुरुस्ती जरूर छायी। बोफोर्स कांड आज भी देश के सबसे बड़े घोटालों में शुमार है। इस फेरहिस्त में बोफोर्स घोटाले को तीसरा स्थान दिया गया है। गाजियाबाद के 36 जजों ने जो पीएफ घोटाला किया है, वो कोई छोटा मोटा घोटाला नहीं है। देश का चौथा सबसे बड़ा घोटाला है। और देश की चौथी बड़ी आईटी कंपनी सत्यम कंप्यूटर के मालिक राजू रामलिंगम ने कंपनी के एकाउंट में ऐसा हेर फेर किया कि वो देश का घोटाला नंबर 5 बन गया। जनवरी 2010 में वल्ड वाइड करपशन परसेप्शन इंडेक्स के मुताबिक भारत में करपशन इतना है कि ये ईमानदार देशों की सूची में काफी पीछे खड़ा है। 180 देशों में भारत 74वें पायदान पर है। यानि बेईमानों की तादात पहले भी थी और अब जाहिर है बढ़ी ही होगी।
सवाल सिर्फ आज बवाल मचाने का नहीं है। सवाल सिर्फ स्टिंग ऑपरेशन दिखाकर दूसरों का सच सामने लाने का नहीं है। सवाल है खुद को सुधारने का। खुद में बदलाव लाने का। जिस जुगाड़ तकनीक के दम पर हम सब कुछ "चलता है " कह कर चला लेतें हैं, उसे बदलने की जरूरत है। जिस दिन से हम खिलाना बंद कर देंगे, उसी दिन से उनका खाना भी बंद हो जाएगा। कॉमनवेल्थ गेम तो हमें बस हमारी असलियत दिखा रहा है। क्या हमें आपको मीडिया को अंदाज़ा नहीं होगा कि जब हमें कॉमनवेल्थ गेम आयोजन करने कि जिम्मेदारी दी गई तो स्टेडियम बनाने से लेकर सड़क बनाने तक में दो से चार करने वाले लोग भी उसका हिस्सा बनेंगे। और ये सुरसा का मुंह कॉमनवेल्थ गेम्स में ही खुला है, ऐसा भी नहीं है। इनके मुंह में बेईमानी, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, मुफ्तखोरी के दाने हमने पहले भी डालें हैं। लेकिन कॉमनवेल्थ के घोटाले हमें इसलिए ज्यादा साल रहें हैं क्योंकि यहां बात घर की नहीं रही। आईपीएल, बोफोर्स, पीएफ घोटालों की नहीं है। यहां देश की साख को बट्टा लगा है।
सही कहूं तो ऐसा तो होना ही था। आज नहीं तो कल। क्योंकि हमने ही बबूल का पेड़ बोया है, तो अब उससे आम फल देने की उम्मीद कैसे कर सकतें हैं।

Wednesday, April 7, 2010

ऑपरेशन ग्रीन हंट बनाम ऑपरेशन सानिया-शोएब निकाह

खबर खबर खबर...सानिया मिर्जा ने शादी करने का किया फैसला..खबर खबर खबर..... पाकिस्तानी क्रिकेटर शोयेब मलिक से 15 अप्रैल को करेंगी शादी..... खबर खबर खबर... शोयब पर आरोप, आयशा सिद्दकी है शोयब की पहली बीवी...खबर खबर खबर।
पिछले दिनों हर तरफ सानिया, शोएब और वो की खबर बिकने वाली खबर रही। भारत की टेनिस स्टार सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी क्रिकेटर शोयब मलिक के निकाह में कब कहां और कैसे टि्वस्ट आ रहा है... सानिया को इसके बारे में खुद खबर कम रही होगी...चैनलों के मुस्तैद रिपोर्ट्स को ज्यादा थी। खबर में वैसे दिलचस्पी सभी की थी भी....सानिया के फैसले पर थोड़ी हैरानी भी सभी को हुई। सब ये ही सोच रहे थे कि आखिर सानिया ने निकाह के लिए शोएब मलिक को ही क्यों चुना ? तिस पर " हम तुम और वो " की लव ट्रैंगिल आ गई। अब क्या था.. सानिया का निकाह इतिहास की तो नहीं, लेकिन चैनलों के इतिहास की बड़ी खबर बन रही थी।
लेकिन इसी गहमा गहमी के बीच एक ऐसे खबर ने दस्तक दी जिसे सुनकर देश सन्न रह गया। 6 अप्रैल 2010 की सुबह देश का अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 1000 नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के जवानों पर हमला बोल दिया। 76 जवानों के मरने की खबर भी साथ में आई। ये जवान दो दिन के ऑपरेशन ग्रीन हंट पर तैनाती के बाद थके हारे अपनी छावनी में लौट रहे थे। ऑपरेशन ग्रीन हंट नक्सलियों के खिलाफ जंग है जिसकी शुरूआत 2009 से हुई है। लेकिन त्रासदी देखें कि जवानों के हाथ दो दिन के सर्च में एक भी नक्सली नहीं आये, लेकिन सूचना तंत्र की नाक के नीचे 1000 नक्सली एक साथ इकट्ठा होते हैं और अब तक के सबसे बड़े नुकसान को अंजाम दे देते हैं। खबरिया चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज से सानिया का चेहरा हटता है और छत्तीसगढ़ का मानचित्र चिपक जाता है। गृह मंत्री की बाइट.. गृह सचिव की बाइट..छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री की बाइट। नक्सलियों के फाइल फुटेज पर नक्सली हमलों का रायता फैल गया।
एक दिन की गहमा गहमी छायी रही...इस बीच सानिया भी कुछ नीचे ही सही हेड लाइन में बनी रही। लेकिन दंतेवाड़ा के हमले के एक दिन के बाद यानि 7 अप्रैल को जब प्राइम टाइम की खबर का हाल जानने के लिए चैनल सर्फ किया तो फिर सानिया, शोयब और आयशा सिद्दकी की वही पुरानी तस्वीरों पर नयी खबर लपेटी जा रही थी। नया क्या था !!!! वही जो होना था। आयशा सिद्दकी और शोयब के बीच सुलह। शोएब ने आयशा सिद्दकी को तलाक दे दिया। खबरें चलने लगी-- शोयब का झूठ .... किसी ने नाम दिया " शोएब या सौ ऐब"। हर कोई ये ही बता रहा था कि शोएब का सच उन्हें पहले से पता था। ..
लेकिन इस शोर के बीच एक चैनल था जो आज भी दंतेवाड़ा के हादसे को प्राइम टाईम की खबर मानकर बैठा था। और वो था एनडीटीवी इंडिया । पता नहीं कैसा चैनल है ये.. जिसे नहीं समझ आता है कि ग्लैमर बिकता है न कि भूखे नंगों की पीड़ा। मसाला बिकता है न कि नक्सली मुद्दा। ठीक है हमला हो गया सो हो गया। कौन सा वो किसी ताज होटल पर हमला था। आंकड़े बतातें हैं कि ऐसे हमले तो पिछले पांच दशकों से होते ही आ रहे हैं। 2009 में ही 1100 से ज्यादा लाशें गिर चुकीं है नक्सली हमलों में। जिस समस्या पर रिपोर्टर से लेकर विशेषज्ञ की राय ली जा रही है.. उसपर बाकी चैनल वालों ने हमले वाले दिन बहस तो करवा ही चुकें हैं। अब इस खबर में बाकि क्या रह गया जो उसे प्राइम टाइम में जगह मिले। दे भी दें... लेकिन ये गोया सानिया शोयेब का डेली सोप खत्म हो तब न। अब भले ही उसके रिपोर्टर नक्सली इलाकों में जाकर रिपोर्टिंग करें....दूसरे चैनल वाले तो ये सब कब का कर चुकें हैं। अब इस स्टोरी में फॉलोअप बस रह जाता है...लेकिन विनोद दुआ जी कैमरे के सामने बैठे थे और इस हमले पर एक के बाद एक जहर बुझे सवालों के तीर दागे जा रहे थे। सरकार के ऑपरेशन ग्रीन का ऑपरेशन यहां चालू था.... तो दूसरे चैनलों पर ऑपरेशन सानिया। दोनों के रिपोर्टर अपने अपने फील्ड पर मुस्तैद। न जाने कितने घंटों से इन्होंने खाया पीया नहीं होगा।
तिसपर एनडीटीवी की हद देखिये। पिछले दिनों रजौरी में मार गिराये गये 16 आतंकवादियों पर भी रिपोर्ट चला रहें हैं। यहां सेना ने भारतीय सीमा में घुसपैठ किये लश्कर के आतंकियों को घेरने के लिए ऑपरेशन खोज चलाया था। सेना ने इस ऑपरेशन पर कामयाबी स्थानीय लोगों की मदद से हासिल की। ये तो महज एक ऑपरेश था... न जाने कितने ही ऐसे ऑपरेशन में सेना के साथ कश्मीर की आवाम खड़ी होती होगी... कितनी बार अपनी कुर्बानी देती होगी। सेना के जवान देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान गंवा देते हैं, लेकिन उनकी आह...कम ही न्यूज़ सेंटर तक पहूंचती है। ज्यादातर शहादत की खबरें 1.5 से 2 मिनट में ही निपट जाया करती हैं। जब तक हमला बड़ा न हो...टीकर से ज्यादा का स्पेस नहीं मिलता है। सास बहू और साजिश आपको सीरियल्स के हर दिन के अपडेट देतें हैं, लेकिन कहां मिलती है ऐसे ऑपरेशनों की भनक। वैसे तो सीमा पर इस तरह की घुसपैठ होती ही रहती है। लेकिन इसके ऑपरेशन पर आधे घंटे का प्रोग्राम बन जाए वो उन दिनों में जब देश भर में टेनिस सनसनी सानिया की खबर सनसनी फैला रही हो। गोया ये काम तो एनडीटीवी ही कर सकता है।
खैर, जिन्हें जो देखना है वो वही देखेंगे। लेकिन सवाल ये भी है कि खाने की ज्यादातर थालियों में अगर फास्ट फूड रखें हों और कुछेक में ही देसी चावल दाल भाजी हो तो जाहिर है जायका लेने के लिए लोग फास्ट फूड ही पसंद करेंगें। ऐसा ही कुछ हाल इस समाचार चैनलों का भी है।
बहरहाल... बहस बहुत बड़ी है। लोकतंत्र है...सानिया का विवादों से भरे निकाह की खबर बड़ी थी या फिर ऑपरेशन ग्रीन हंट की असफलता... ये जनता ही तय करे।

Thursday, April 1, 2010

शिक्षा का मौलिक अधिकार ली नहीं खरीदी जा रही है...
1 अप्रैल २०१०..... कई खबर छाये रहे। " आज देश एक नई सुबह की अंगड़ाइयों के साथ जागा।" वैसे जागते तो हम हर सुबह हैं, लेकिन कहा गया कि आज की सुबह खास है। क्यों भला..... सो इसलिए कि आज से देश के १३ महानगरों में यूरो ४ ईंधन पर ही गाड़ियां भागेगी। आज से ही अब तक कि सबसे बड़ी जनगणना मुहिम का श्री गणेश हो गया। नये थलसेना अध्यक्ष वी के सिंह ने सेना की कमान अपने हाथों संभाल लिया और इन सबसे बड़ी बात तो ये कि आज से शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो गया। सरकार बच्चों की पढाई के लिए बेहद चिंतित है। वो चाहती है कि ६ से १३ साल के सभी बच्चे स्कूल जरूर जाएं। स्कूल जाएं.... पढाई करें... पढ़ लिख कर देश के होनहार नौजवान बनें.....देश की तरक्की करें।
अखबार के पन्नों को पलटने से ठीक पहले मैं अपनी ४ साल की बिटिया को स्कूल बस पर बैठा कर आई थी। सुबह के ६ : ५० पर ही बस हमारे स्टैंड पर हॉर्न दे देती है। बस पर जब उसे बैठाया तो हर दिन की तरह मैंने उसे अपना ध्यान खुद रखने की नसीहत दी। तब तक नहीं पता था कि बच्चों के स्कूल जाने की चिंता तो आज से हमारी सरकार कर ही रही है। घर पहुंची तो अखबार में खबर पढ़कर काफी अच्छा लगा। शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गया है। जैसे बोलना हमारा मौलिक अधिकार है। आजादी हमारा मौलिक अधिकार है। अपने हक की लड़ाई लड़ना हमारा मौलिक अधिकार है। समाज में बराबरी का दर्जा हासिल करना मौलिक अधिकार है। कई अधिकारों में एक अधिकार और जुड़ गया। लेकिन अफसोस की बात है कि कई अधिकारों की तरह ही एक और अधिकार बाजारू ताकत के आगे बौना और कमजोर नजर आ रहा।
ज्यादा पुरानी बात नहीं। मेरी ही तरह कई मां बाप अपने बच्चे को उनका मौलिक अधिकार दिलाने की जंग पिछले साल के अंत में लड़ चुके होंगे। नर्सरी का दाखिला। पढ़ने- सीखने के एक अंतहीन सफर की शुरूआत। अभिभावक की रेस लगी है। एक स्कूल से दूसरे स्कूल.... फॉर्म... प्रोस्पेक्टस.....इंटरव्यू... टेस्ट। ये सभी पगबाधा पार करने के बाद सबसे बड़ी बाधा आती है.... स्कूल की फीस की। एक आम आदमी॥मैंगो मैन अपने बच्चे को ये मौलिक अधिकार दिलाने की सबसे बड़ी लड़ाई यहां लड़ता । कॉन्वेंट स्कूल, पब्लिक स्कूल, मिशनरी स्कूल, इंटरनेशनल स्कूल। कौन किसी से कम रहे और रहे भी तो क्यों रहे। सभी जानते हैं कि जिन्हें अपने बच्चे को उनका अधिकार दिलाना है वो अपनी जेब का माल उनकी जेब में डालेंगे ही। शिक्षा का अधिकार तो हर जगह बिक रहा है.... जिसके पास जितना पैसा है वो इस अधिकार के साथ साथ कई एड-ऑन सहुलियतें भी खरीदेगा। यही आज के बाज़ार का दर्शन है।
इसी के साथ मुझे याद आने लगा अपना जमाना। तब बहुत कम ही ऐसे लोग होते थे जो नर्सरी में अपने बच्चों को भेजते थे। सवाल था कि छोटे बच्चें क्या पढेंगे। और पैसे देकर बच्चे को स्कूल खेलने के लिए क्यों भेजे। पैसा... जी हां पैसा। मेरी खुद की नर्सरी की पढ़ाई 20रुपये प्रति महीने में हुई थी। लेकिन ये २० रुपये भी देना हर मां बाप के बस की बात नहीं थी। कॉलोनी में बचपन गुजरा। नर्सरी के बाद सरकारी स्कूल जाने की बारी गई। आजतक हमें पता तक नहीं चल पाया कि आखिर हमारी पढ़ाई में फीस लगते भी थे या नहीं। एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर का बच्चा हो या फिर उन्हीं के पीयून का। हम सभी एक ही स्कूल जाते थे। एक ही क्लास में बैठते थे। सभी के यूनिफॉर्म एक थे। लेकिन उसी में किसी के शर्ट की धुलाई और उसकी सफेदी उसके पिता की हैसियत बताती थी। एक और बात... जितने बच्चे कॉलोनी में हैं उन सभी का दालिखा पक्का था। न कोई टेस्ट न कोई फीस न कोई इंटरव्यू। जो भी उस कॉलोनी से होगा उसका नामांकन तो निश्चित था। हमने भी पढ़ाई की... हमारे भाई ने भी पढ़ाई की... और हमारे उस कॉलोनी के तमाम बच्चों ने अपना मौलिक अधिकार पा लिया। ६०, ७० और ८० के दशक तक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने की बात भी नहीं छिड़ी थी। लेकिन तब न तो स्कूल इतने मंहगे थे और न ही किताबें। हां मुश्किल थी तो बस बच्चों से उसके स्कूल की दूरी और जागरुकता की कमी। 7० के ही दशक में संजय गांधी के सख्त कदमों ने देश की धरती पर कई कारखाने खड़े किये। आज जिस मारुति ८०० को कई शहरों में बंद किया जा रहा है, वो भी ८० के ही दशक में देश में आई। सड़कों की सूरत बदल गई। व्यवसायिक शिक्षा से लेकर पारंपरिक शिक्षा सब हासिल की जाती ।बच्चा तेज है तो इंजीनियरिंग या फिर मेडिकल निकालेगा.... नहीं तो सिविल्स। ये नहीं निकाल सका तो बैंक पीओ.... नहीं को क्लर्क ही सही। जितनी भी पढ़ाई लिखाई हुई... उसी के दम पर कम से कम दूसरे मौलिक अधिकार तो हासिल हो ही जाते थे।
लेकिन आज सरकार जिस तरह से शिक्षा के मौलिक अधिकार के कानून का ढोल पीट रही है... क्या उससे वाकयी बच्चों की पढ़ाई सुलभ हो सकेगी। क्या पब्लिक स्कूलों के फीस पर मौलिक अधिकार अपनी हक हासिल कर सकेगा । या नर्सरी के दाखिले से शुरू हुई मारामारी जो प्रोफेशनल कोर्स तक में पैसे का तमाशा दिखाती है... क्या सरकार उसमें शिक्षा का हक दिला सकेगी। या फिर देश भर में ऐसे बेहतर स्तर के स्कूल खोल सकेगी जिसमें बच्चों को अपना अधिकार हासिल करने के लिए बस में घंटों समय बर्बाद न करना पड़े। ....... या फिर हर दिन की तरह कल भी मुझे अपनी बेटी को उसके स्कूल बस पर बैठाते समय यही कहना पड़ेगा कि " अपना ध्यान रखना।"

Friday, March 5, 2010

ये सीरियल क्या सिखलाता है
रात के नौ बज रहे थे। किचन में खाना बनाते समय पड़ोस की खिड़की से आवाज़ें आ रही थी। कोई फिल्मी धुन था और साथ ही एक सीरियल का थीम म्यूज़िक भी चल रही थी। समझते देर नहीं लगी कि ये फिल्मी मसाला सीरियल का है, वो भी तड़का डाल कर। सोची कि ज़रा देखूं तो सही कि विदाई की कहानी आखिर पहुंची कहां तक। टीवी ऑन किया तो देखा कि बुराई की वही चिर परिचित मुस्कान। वही आंखें घुमाना, वही सिर से पांव तक सोने और हीरे से जड़ा बदन। विलनेस का ये रूप अब नया नहीं है। एकता कपूर की गढ़ी इन खलनायिकाओं ने लोगों के दिलों में अपने लिए जितना गुस्सा भरा है, उतना ही प्रोडक्शन हाउस के लिए टीआरपी भी बटोरी है। क्योंकि सास भी कभी बहू से मॉडन खलनायिकाओं का जो दौर शुरू हुआ वो आज तक बखूबी जारी है। ये बात और है कि इन खलनायिकाओं और सती सावित्रियों से लबरेज सीरियलों का बुढ़ापा भी अब जल्दी ही आ रहा है। लेकिन कहा भी गया है न कि भागते भूत की लंगोट ही सही। सो प्रोडक्शन हाउस भी यही सोच रहें हैं कि जितना बटोर सकते हो बटोरते चलो। कहानियां चली जा रही है, सच्चाई,अच्छाई, मासूमियत, त्याग की मूर्तियों की। षडयंत्र, साजिश, बुराई की मूर्तियों की। मूर्ति भी शायद इनके छोटा होगा। इसे भीमकाय मूर्ति कहा जाना चाहिए, भीमकाय। जो भी एपिसोड देख लें, मुख्य किरदार की अच्छाई का पिटारा खत्म होता ही नहीं। बर्दाश्त करने की ताकत तो ऐसी है कि वो सुनामी जैसे तूफान को भी बड़े आराम से झेल जाए। इससे एक आइडिया भी आया है। जैसे हवा, पानी से वैज्ञानिकों ने पावर हाउस बना डाला या उसी तरह हमारे सीरियलों की देवियों से भी बिजली घर की तरह कोई प्लांट बना पातें। जैसे बर्दाश्त प्लांट, अच्छाई प्लांट, त्याग प्लांट, षड्यंत्र प्लांट। फिर जिंदगी कितनी आसान हो जाती। कोई सास अगर बहू को तंग करती हो तो उसे बर्दाश्त प्लांट ले जाओ , बर्दाश्त का पावर दो, अपने आप सास में सुधार हो जाए। कोई बहू अपनी सास को परेशान करे तो उसे त्याग प्लांट भेजो। त्याग की शॉक लगाओ, बहू लाइन पर।
क्या मैं गलत बोल रही हूं।
अब जरा विदाई की साधना को ही ले लें। पति पागल मिला, बर्दाश्त किया। सास से गालियां मिली बर्दाश्त किया। अब बहन भी निगेटिव रोल में आ गई है वो भी मंजूर। लेकिन साधना है कि भलाई पर भलाई किये जा रही है, और मुंह से एक चूं तक नहीं निकलती। इतिहास के पन्नों को पलट लें, हंसते हंसते बर्दाश्त करने का ये मिसाल कहीं नहीं मिलेगा। मिसाल मिलेगें को दूसरे सिरीयलों में ही मिलेगें।
कलर्स का हिट सीरियल उतरन को ही लें। तपस्या बचपन से ही इच्छा के साथ छल कपट कर रही है। इच्छा है कि बचपन से ही इसे झेल रही है। और तो और वक्त के साथ साथ उसमें सहने का दायरा तपस्या के षड्यंत्र के दायरे के साथ बढ़ता ही जा रहा है। तपस्या की एक एक चाल से पब्लिक वाकिफ है, इच्छा भी वाकिफ है, लेकिन तपस्या के लिए जितनी वफादार इच्छा उतनी ही वफादार उतरन के लिए उसके दर्शक।
दोस्ती के इस अजीबोगरीब मिसाल के बाद कलर्स पर आती हैं अम्मा जी और उनका कानून। सीया उनके खिलाफ लड़ने निकली, लेकिन इस सीरियल को साल से ऊपर होने को हैं लेकिन सिया जो इसमें कोई जीत हासिल कर पायी हो। सुंदर है, पढ़ी लिखी है, पिता डॉक्टर हैं, बावजूद इसके अच्छाई की भीमकाय मूर्ति लिये वो अम्मा जी के घर बर्तन साफ कर रही है। हंसी आती है उन एपिसोड को याद करके जिसमें जिला के डीएम साहब को अम्मा जी के गुंडे बेटों ने रस्सी से बांध कर पीटा था। और डीएम अपनी जान बचा कर भागने के सिवाय कुछ नहीं कर पाया।
सोचती हूं कि आखिर क्या सोच कर इन सीरियलों के निर्देशक महिलाओं का चरित्र गढ़तें हैं। या तो अच्छी या फिर बुरी। अच्छी है तो गजब की अच्छी, और बुरी है तो बेहद बुरी। क्या आज की महिलाएं वाकयी कहीं इन सीरियलों में फिट बैठतीं हैं। हम बात कर रहें हैं महिलाओं के लिए संसद में ३३ फीसदी आरक्षण की, ताकि ज्यादा से ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व महिलाओं की आवाज़ को संसद तक पहुंचा सकें। हम बात करते हैं कि क्यों महिला फाइटर प्लेन नहीं उड़ा सकती, हम पूछते हैं कि क्यों महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए पूरे सिस्टम से लोहा लेना पड़ता है। क्यों देश की सबसे बड़ी अदालत में कोई महिला जज की कुर्सी पर नहीं बैठी। ऐसा नहीं है कि इनके पास मुद्दों की कमी है। किसी न किसी सामाजिक बुराई का आधार लेकर ही सीरियल की परिकल्पना की जाती है। कहानी शुरू भी होती है समस्या मूलक अंदाज में। लेकिन गाड़ी के आगे बढ़तें ही टीआरपी के खेल पर सारी कहानियों में संशोधन शुरू हो जाता है, और गाड़ी उद्देश्य की पटरी छोड़ मनोरंजन की पटरी पर दौड़ने लगती है।
मेरा कहना बस यही है कि किस्सागोई ठीक है, लेकिन इंसानी संवेदनाओं से ऊपर उठ कर नहीं। अगर साधना के साथ अत्याचार हो रहा है तो वो उसके खिलाफ बोले, न कि मुंह पर दुपट्टा रखकर रोये। अम्मा जी की बुराई एपिसोड दर एपिसोड परवान न चढ़े, कभी तो सिया का विरोध इतना मुखर हो कि अम्मा जी उसके सामने धराशायी हो। कभी तो इच्छा तपस्या की शतरंज का मुहरा न बने, कभी तो वो अपने हक की बात करे।
मैं इसलिए उन सीरियलों की बात कर रही हूं जिसने टिआरपी की ऊंचाई को छूआ है, जिसने अपने चैनल को मालामाल किया है। लेकिन जो किस्सागोई इनपर चल रही है, वो कहीं से भी दर्शकों को अच्छी बातें नहीं सिखाती है। कहीं से भी वो महिलाओं के हक की बात नहीं करती। सिखाती है तो बस वो बर्दाश्त करना या फिर आंखें घुमा कर षडयंत्र पर षडयंत्र रचना।
वैसे तो रिमोट हमेशा हाथ में होता है और चैनल के नंबर उंगलियों पर। जो मर्जी वो देखो। किसी ने हमें नहीं बांधा है। लेकिन फंतासी की इस दुनिया में क्या कभी "उड़ान" वाला जुनून आयेगा, क्या कभी "बुनियाद" वाला अपनापन दिखेगा, क्या कभी "फौजी" वाला जज्बा होगा, क्या कभी रामायण महाभारत जैसी धार्मिक सीख मिलेगी। जवाब आप सभी जानते हैं। है न !

Tuesday, February 9, 2010

काश ! हर मुंबईया कहता "माई नेम इज़ ऑल्सो खान "....

दिन भर चैनलों पर खबरें चलती रहीं कि शिव सैनिकों का तांडव... मुंबई के सिनेमाघरों में तोड़फोड़। शिवसैनिकों ने चेतावनी दी है कि मुंबई के किसी भी मल्टीप्लेक्स में शाहरुख खान की माई नेम इज़ खान नहीं चलने देंगे। फुटेज भी चल रहे थे.....शिवसैनिकों का जोर भी सामने नज़र आ रहा था। सिल्क साड़ियों में लिपटी शिव सैनिकों का फिमेल वर्जन भी दिखा। नारे देते हुए हाथ उठे थे... शाहरुख खान के विरोध में आवाज़ भी बैक ग्राउंड में थे। लगे हाथों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की शिव सैनिकों को चेतावनी भी आई। सीएम साहब ने कहा कि ये सब बंद करो नहीं तो उद्धव ठाकरे को मिलने वाली सरकारी सुरक्षा हटा ली जाएगी। मीडिया भी एलर्ट हो गया। लाइव फुटेज... लाइव चैट...लाइव इंटरव्यू... सब कुछ लाइव। खबरों पर खबर... दे दनादन। और बनता भी है। इधर कोई खबर ब्रेक कर रहा है तो कोई खबर बना रहा है। सभी व्यस्त। मुंबई की सुरक्षा में तैनात पुलिस वालों की छुट्टियां रद्द। सवाल नाक का जो बन चुका है............ मुंबई में माई नेम इज़ खान चलेगी या नहीं। और इस बीच में खबरों का मदारी डुग डुगी लेकर तमाशा पर तमाशा दिखाए जा रहा है। होड़ लग गई कि किसके चैनल पर तमाशा ज्यादा है। किसके तमाशे से कमाई ज्यादा है। जितना कुछ बेचा जा सके बेचते चलो।

इन खबरों से मीडिया वालों की भले खूब कमाई हुई हो, भले चव्हाण साहब खुद को हीरो समझ बैठें हों और शिवसैनिक जमीन से और भी ऊंचा उड़ रहें हों........लेकिन इन खबरों से आम आदमी के पेट में भू डोल नहीं आने वाला। अलबत्ता दिमाग में जरूर भू डोल आ गया है। इतनी कवायद, इतनी मुस्तैदी, इतना विरोध, इतना सब कुछ किस लिए...... माई नेम इज़ खान को बचाने के लिए। ताकि वो मुंबई के मल्टीप्लेक्सेज़ में चल सके। फिल्म देखने आये लोगों को सुरक्षा दी सकी जाए। एक फिल्म को विरोध से बचाने के लिए इतना ताम झाम, इतनी जद्दोजहद। मानो 26/ 11 ने एक बार फिर मुंबई में दस्तक दी है।

लेकिन सवाल ये है कि सरकार की चिंता माई नेम इज़ खान को बचाने की है। उनका क्या जो माई नेम कुमार, माई नेम इज़ तिवारी, माई नेम इज़ झा, माई नेम इज़ गुप्ता, माई नेम इज़ सिंह, माई नेम इज़ पांडे वैगेरह वैगेरह हैं। इन नाम वालों को भी आये दिन शिव सैनिकों एमएनएस वालों से ज़लील होना पड़ता है, उनके साथ मार पीट होती है, मुंबई छोड़ देने की धमकी दी जाती है। क्यों....क्योंकि ये भारतीय हैं, न की मराठी। क्या कभी सरकार को इन नामों को इतनी सुरक्षा देनी याद आई है। क्या कभी मीडिया इन नामों के सामने दीवार बन कर खड़ा हुआ है। शिवसैनिक, एमएनएस का हमला तो मराठी मानुष या फिर गैर मराठियों के नाम पर इन पर भी होता रहा है। फर्क बस ये है कि इन नामों में किसी बॉलीवुड के बादशाह का नाम नहीं है। ये नाम शहर में ऑटो चलाकर अपना गुज़ारा करने वालों का है, मजदूरी कर पेट पालने वालों का है, टैक्सी चलाने वालों का है, किसी होटल में सफाई करने वालों का है, बस में कंडक्टरी करने वालों का है, डिग्रियों का गठ्ठर बांधे मुंबई में अपने सपनों को तलाशने वालों का है। तो क्या हुआ अगर शिव सैनिक, एमएनएस वाले इन्हें मारें पीटें, जबरन उत्तर भारत की ओर जाने वाली ट्रेनों में बैठा आये। तो क्या हुआ अगर इनकी टैक्सी में आग लगा दी जाए। संगठन के 380 कार्यकर्ताओं की तो एक साथ गिरफ्तारी कभी नहीं हुई होगी। न ही इससे पहले कभी किसी माई नेम इज़ फलाना फलाना के लिेए ही सरकार इतनी मुस्तैद रही होगी.... कि पूरे के पूरे पुलिस अमले की ही छुट्टी कैंसिल।

अब दिमागी भू डोल न आये तो क्या हो। माई नेम इज़ खान के लिए तो चाचा जी को उनके कार्यकर्ता कहतें होंगे कि वॉट ऐन आइडिया सर जी..... फिल्म पर हंगामें ने सरकार के भी दिमाग की बत्ती जला दी...मीडिया के लिए तो हमेशा ठंडा मतलब कोका कोला रहा है। लेकिन इन सबके बीच ऐसे कई नेम हैं जो आज भी घर से बाहर कदम रखते हुए डरते होंगे, कब सर से छत हट जाए ये सोच कर सहमते होंगे, कहने के लिए तो सभी भारतीय हैं लेकिन इस बात पर अफसोस जरूर करते होंगे कि काश हम भी यही कहते कि माई नेम इज़ खान.....................