Sunday, October 24, 2010

ग्लोबल नायिकाओं के गुलाम किरदार

पार्वती, प्रेरणा, तुलसी के बाद ग्लोबल सीरियल की दुनिया में कुछ नई सुपर नायिकाओं ने जगह पक्की कर ली है। इच्छा, सीया, आनंदी, लाली, प्रतीज्ञा, ज्योति, और न जाने कितनी ही छोटे पर्दे की सुपर नायिकाएं डेली सोप में धर्म, मान मर्यादा और बुराई को बर्दाश्त करने की नई लक्ष्मण रेखा खींचती जा रही हैं। ये सभी बुराई प्रूफ हैं, बर्दाश्त करने की इनकी क्षमता अपरमपार है। इन्हें महिमामंडित करने के चक्कर में सीरियल बनाने वाले घरानों ने ऐसी मान्यताओं और सड़ती हुई परंपरा का सहारा लिया है जो किसी भी सूरत में प्रगतिशील महिलाओं की तस्वीर नहीं पेश करता है।
एक सीरियल के एक सीन का जिक्र करना चाहूंगी।
सीन नंबर 1 – बुंदेला खानदान की आलिशान हवेली। हर तरफ रॉयल लुक। एक से बढ़कर एक इंटीरियर। सोफा, कारपेट, झूमर जहां से भी कैमरे का एंगल बनता है, खानदान का रुतबा दिखाता है। हवेली में कई बार नौकर चाकर कंधे पर एक गमछा टांगे, इधर उधर की सफाई करते भी दिख जाते हैं।
सीन नंबर 2 – इसी हवेली का एक कोना। दीवार से लेकर फर्श सभी पर मनहूसियत छायी है। ये कमरा खास तौर पर घर की बड़ी बहू के लिए बनाया गया है। इसका इंटीरियर उसी हिसाब से तय किया गया है। न रंग न रौनक। उसके लिए सोफा तो दूर कुर्सी तक नहीं है। जमीन पर सोती है, चूल्हा फूंक फूंक कर खाना बनाती है। हफ्ते में कम से कम 6 दिन व्रत करती है। क्योंकि वो विधवा है।

“उतरन” की नायिका इच्छा की कष्ट से भरी जिंदगी में एक और दुख की एंट्री। विधवा होने पर वो बुंदेला परिवार की सालों पुरानी दकियानूसी परंपरा का पालन सहर्ष कर रही है। लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाती है, दिन में एक ही बार खाती है, खाना भी खुद पकाती है, नंगे पांव चलती है, पूजा पाठ करती है ...परंपरा और खानदान की मर्यादा के नाम पर डायरेक्टर उसे जो जो करने के लिए कहते हैं वो सब करती है। लेकिन सवाल उठता है कि किस तरह की परंपरा और किस तरह के विचारों का दोहन करके ये चैनल टीआरपी की रेस में आगे भागना चाहते हैं।
विवेकानंद ने कहा था कि समाज में गुलामी चार तरह की होती है। एक है बल की गुलामी। यानि अपने बल पर सब कुछ हासिल करना। मतलब जंगल राज। दूसरी होती है धन की गुलामी। पैसे के दम पर दूसरों को इस्तेमाल की वस्तु समझ लेना। तीसरी होती है मन की गुलामी। ये गुलामी सबसे घातक होती है, क्योंकि इसमें हमला सीधे लोगों की सोच पर किया जाता है। दूसरों को ये एहसास दिला देना कि वो निकृष्ट हैं और मैं उत्कृष्ट हैं। तुम भेड़ बकरी हो, बस मेरे कहे अनुसार चलो। और चौथी गुलामी है पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को अपनी नीजि संपत्ति मानना। और इन सबके बीच आजकल मनोरंजन की दुनिया एक नई गुलामी का बीज बो रही है, और वो है पुरानी कुरीतियों और संस्कारों को बर्दाश्त करने वाली इनकी महिमा मंडित नायिकाओं के उसूलों की गुलामी। यकीन मानें या नहीं..लेकिन बाकि सभी गुलामी से ये गुलामी ज्यादा खतरनाक है। ये पीपल के पेड़ के बीज की तरह अपनी जड़ें घर की नींव सास और बहूओं के बीच फैला रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि पीपल जहां जमता है, उसे ही बाद में उखाड़ फेंकता है।
1982 में एक फिल्म आयी थी प्रेम रोग। निर्देशक थे राज कपूर। आज से 20 साल पहले ही राज कपूर ने विधवाओं पर होने वाले अत्याचारों का विरोध करते हुए समाज को कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा दी थी। मनोरमा ठाकुर बेटी है। अनाथ देवधर को उससे प्यार हो जाता है। मनोरमा की शादी कहीं और हो जाती है। शादी के कुछ ही दिन बाद मनोरमा के मांग का सिंदूर उजड़ जाता है, और हंसने खिलखिलाने की उम्र में उसकी जिंदगी काल कोठरी में कैद हो जाती है। उसे भी नंगे पांव चलना पड़ा, अपना खाना अकेले सांझ होने पर ही पका कर खाना पड़ा, सफेद लिबास उसकी पहचान बन गयी, लोगों के ताने सुनने पड़े। न कोई रंग न कोई सपने। लेकिन नये विचारों वाले देवधर ने विधवा के खिलाफ बने सभी उसूलों का विरोध कर दिया। फिल्म में एक बात काफी सटीक कही गई थी कि ये सभी सड़ी गली कुप्रथाएं बड़े घरों से निकल कर पूरे समाज़ को गंदा कर देती हैं।
ऐसा ही कुछ माहौल हमारे सीरियल्स भी बना रहे हैं। कहने के लिए ये समाज में व्याप्त मुद्दों को उठाते हैं, लेकिन इनके पास समस्या तमाम होती है, हल काफी कम। एक और सीरियल है “बालिका बधू”। ये तो समस्याओं का पिटारा ही बना हुआ है। लेकिन जब हल निकालने की बारी आती है तो इसे दर्जनों एपिसोड लग जाते हैं। सुगना का बाल विवाह हुआ है जो गैर कानूनी है। इससे जनता को कोई सीख मिले, उससे पहले एक और बाल विवाह आनंदी और जगदीश का कर दिया जाता है। सुगना विधवा हो जाती है और दादी सा के कायदे कानूनों के आगे किसी की नहीं चलती। उससे हंसने बोलने के सभी अधिकार छिन जाते हैं। कोई विरोध नहीं कर पाता है, उसके अपने मां बाप भी नहीं। किसी खास स्थिति में ही सुगना की तो शादी हो जाती है, लेकिन उसी सीरियल में भूली और श्याम की ममेरी बहन बाल विधवा हैं, उनका आज तक उद्धार होता नहीं दिखा है। भूली किसी शादी में नहीं जा सकती, उसे अपशकुनी खा जाता है।
अगर जमी हुई सड़ी पुरानी परंपराओं के नाले को खंगाला जाए तो विधवा जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं था। सति प्रथा उसी की काली परछायी है। तब की परंपरा के मुताबिक पति के परलोक सिधारने पर पत्नी स्नानादि करके अपने शरीर पर चंदन तिलक लगाती थी। ब्राह्मणों को दान करती और फिर सूर्य नमस्कार करती हुई अपने पति के शरीर को गोद में रख कर चिता पर बैठ जाया करती थी। बंगाल में विधवा का बाल मुंडवा दिया जाता था ताकि वो सुंदर ही न दिखे। यही नहीं इतिहास और हमारे साहित्य में इस बात की भी चर्चा है कि विधवा का बाल मुंडवाने बनारस लाया जाता था और फिर उनसे पिंड छुटाने के लिए उन्हें वहीं अकेला भटकने के लिए छोड़ दिया जाता था।
मुड़ कर देखेंगे तो समाज की तमाम विसंगतियां हमें दिख जाएंगी। बिहार, राजस्थान,हरियाणा, बंगाल का अनपढ़ समाज आज भी उन कुरीतियों को मानता है और उन्हें ही अपना आर्दश बताता है। पुरुष प्रधान समाज अपनी सहूलियत के मुताबिक समाज के कायदे कानून बनाता चलता है और उनकी चक्की में पिसती हैं तो सिर्फ औरतें। किसी बेवा को डायन बता कर गांव में नंगा घुमाया जाता है। गरीब की इज्जत को दबंग अपने पैरों की जूती मानते हैं, दहेज का दानव आज भी कई घरों में बहुओं के लिए काल बना हुआ है। बेटे की ख्वाहिश में बेटियां का दम तोड़ दिया जाता है। सीरियल्स में आपको समाज ऐसा हर वर्ग दिखता है। एक और चरित्र हैं, न आना इस देस मेरी लाड़ो की अम्मा जी। खुद औरत हैं, लेकिन गांव में बेटी की किलकारी नहीं सुन सकती। सीरियल को शुरू हुए पौने दो साल हो चुके हैं। लेकिन अम्मा जी का कोई बाल भी बांका नहीं कर सका।
सामाजिक मुद्दों पर सीरियल बनाना गलत नहीं है। सिल्वर स्क्रीन हो या छोटा पर्दा। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के ये बेहतरीन माध्यम है। लेकिन बात तब बने न जब समस्या हो और फिर उनका निदान भी। बुराई हो और फिर अच्छाई की उसपर विजय भी। प्रगतिशील विचारों की बुनियाद रखी गई हो, नायिकाएं समाज में क्रांति ला रही हों। फिल्मों में तो तीन घंटें में समस्या का समाधान दिख जाता है, लेकिन इन सीरियलों में नायिका कब विरोध करेगी, कब वो मंगलसूत्र और सुहाग से ऊपर उठकर अपनी कुचलती जिंदगी के हक में फैसला करेगी। डेली सोप की नायिकाएं कब अधर्म के खिलाफ दुर्गा का रूप धारण करेंगी। आखिर कब।

शिल्पी रंजन

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