Thursday, August 5, 2010

बोया पेड़ बबूल का तो ......

इन दिनों हर तरफ कॉमन वेल्थ गेम्स की ही चर्चा है। कहने का मतलब कि कम ऑन वेल्थ की ही चर्चा है। हर दिन कोई न कोई नया घोटाला सामने आ रहा है। वाकयी इस खेल ने पूरी दिल्ली की जोगरफी, हिस्ट्री से लेकर केमस्ट्री सभी को बदल कर रख दिया है। अब जिधर भी नज़रें घुमाएं तो लगता है कि देश की राजधानी में नहीं बल्कि घोटालों की राजधानी में पहुंच चुकें हैं। आम आदमी सड़कों पर चलता है, सड़कें तैयार करने में घोटाला, फुटपाथ बनाने में घोटाला। बसों पर चलो तो बस की क्वालिटी में घोटाला। अंधेर नगरी में जो थोड़ी बहुत रौशनी स्ट्रीट लाइट से आती है, वहां भी घोटाला। फिलहाल कॉमनवेल्थ गेम में होने वाले गेम्स के नतीजे क्या होंगे ये तो नहीं मालूम लेकिन इसके प्रिप्रोडक्शन ने देश को दो खेमों में जरूर बांट दिया है। देश भक्त और देश द्रोही। देश द्रोही तो वे हैं जिनके कंधों पर देश का मान बढाने की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन उन्होंने बस अपनी जेबें भरने की जिम्मेदारी निभाई। और बाकि सब, यानि हम,आप,मीडिया, विपक्ष सभी देश भक्तों की फेरहिस्त में आतें हैं। हमें चिंता है देश की, हमें चिंता है देश की इज्जत की, हमें चिंता है कॉमनवेल्थ गेम्स की।
लेकिन एक कहावत सभी ने सुनी होगी कि बोये पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए। ये कहावत दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार, सुरेश कल्माड़ी सरीखे लोगों या सरकारों के लिए नहीं हमारे और आपके लिए भी है। आज हम सभी सुबह सुबह अखबारों में घोटालों के बारे में पढ़तें हैं तो जी खौल उठता है। लेकिन कहा जाए तो क्या बेईमानी का खेल देश में आज पहली बार हो रहा है। देश की बात छोड़ दें। हम और आप... आम आदमी, मीडिया सब इस बेईमानी के खेल के हिस्सा बने हुए है। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से। हम ही खिलातें हैं, कभी मजबूरी में, कभी जुगाड़ में। वक्त बे वक्त। जहां सीधे उंगली से घी नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करतें हैं, नहीं तो चम्मचों का भी इस्तेमाल करतें हैं। देश के बड़े घोटालों की बात नहीं करूंगी। बहुत हड़बड़ी है, रेड लाइट है, लेकिन हल्के से अपनी गाड़ी निकाल लिये। आगे ट्रैफिक हवलदार ने हमें पकड़ा, कहा कि फाइन दो। चालान लगेगा 100रुपये। हम कहतें हैं कि 20-25 रूपये लेकर काम चलता करो। बात 50 में बन गई। हमारी 50 रुपये की बचत।.... घोटाला। 100 रुपये का पूरा पूरा घोटाला। कौन कर रहा है, हम आप। सड़क की ही बात करें। गाड़ी चलाते समय फोन की घंटी बजती है। इमरजेंसी है। और न भी हुआ तो क्या हुआ। ड्राइविंग में एक्सपर्ट हैं। एक हाथ से भी कार फर्राटे से दौड़ा सकतें हैं। ट्रैफिक पुलिस वाले की नज़र पड़ी। सीधे सीधे 1000 रुपये का जुर्माना। मैंगो मैन होगा तो 100-200 में बात को रफा दफा करा लेगा। प्रेस वाला होगा तो अकड़ के साथ गाड़ी पर लाल रंग से बड़े बड़े लेटर्स में लिखे वर्ड को दिखाते हुए कहेगा "प्रेस"। तब भी अगर मामला नहीं बनेगा तो अपने किसी दूसरे रिपोटर से ट्रैफिक पुलिस के किसी सीनियर को फोन करा देगा। ताकि जुर्माना न भरना पड़े। किया न हमनें 1000 रुपयों का घोटाला। हो सकता है कि इसे आप घोटाला नहीं मानें। लेकिन घोटालों की शुरुआत तो हो ही गई। नींव हमने तो डाल ही दी। चाहे अनचाहें ही। एक पासपोर्ट बनवाने का खर्च होता है 1000 रूपये। हमें पासपोर्ट मिलना चाहिए या नहीं,हम पासपोर्ट हासिल करने के लिए वैध हैं भी नहीं, इसकी जांच पुलिस और सुरक्षा एजेंसी करतीं हैं। लेकिन अधिकतर पासपोर्ट अधिकार और पुलिस वालें जांच के नाम पर जम कर जेबें भरतें हैं। आप चाहें या नहीं चाहें। खिलातें हम सभी हैं। कोई मजबूरी में तो कोई सफायी के साथ। ऑफिस ऑफिस का खेल तो हम भी खेल रहें हैं। कॉमनवेल्थ वालों ने थोड़ा ज्यादा खेला है। फर्क बस यही है। क्या इससे पहले हमारा देश ईमानदारों का देश था। क्या इससे पहले घोटालें नहीं हुए थे। 30 जून 2010 को यूके की न्यूज़ एजेंसी रॉयटर ने भारत के 6 बड़े घोटालों की लिस्ट जारी किया है। इसमें आईपीएल मैन ललित मोदी का घोटाला सबसे ऊपर है। दूसरा नंबर एड्स, टीबी, मलेरिया जैसी स्वास्थ्य संबंधी परियोजनाओं में वल्ड बैंक से मिलने वाले पैसों के हेर फेर का है। आरोप खुद वल्ड बैंक ने लगाया है कि देश को 1997 से 2003 के बीच 500मिलियन डॉलर की सहायता राशि दी गई। लेकिन देश का स्वास्थ्य तो नहीं सुधरा, हां कईओं पर तंदुरुस्ती जरूर छायी। बोफोर्स कांड आज भी देश के सबसे बड़े घोटालों में शुमार है। इस फेरहिस्त में बोफोर्स घोटाले को तीसरा स्थान दिया गया है। गाजियाबाद के 36 जजों ने जो पीएफ घोटाला किया है, वो कोई छोटा मोटा घोटाला नहीं है। देश का चौथा सबसे बड़ा घोटाला है। और देश की चौथी बड़ी आईटी कंपनी सत्यम कंप्यूटर के मालिक राजू रामलिंगम ने कंपनी के एकाउंट में ऐसा हेर फेर किया कि वो देश का घोटाला नंबर 5 बन गया। जनवरी 2010 में वल्ड वाइड करपशन परसेप्शन इंडेक्स के मुताबिक भारत में करपशन इतना है कि ये ईमानदार देशों की सूची में काफी पीछे खड़ा है। 180 देशों में भारत 74वें पायदान पर है। यानि बेईमानों की तादात पहले भी थी और अब जाहिर है बढ़ी ही होगी।
सवाल सिर्फ आज बवाल मचाने का नहीं है। सवाल सिर्फ स्टिंग ऑपरेशन दिखाकर दूसरों का सच सामने लाने का नहीं है। सवाल है खुद को सुधारने का। खुद में बदलाव लाने का। जिस जुगाड़ तकनीक के दम पर हम सब कुछ "चलता है " कह कर चला लेतें हैं, उसे बदलने की जरूरत है। जिस दिन से हम खिलाना बंद कर देंगे, उसी दिन से उनका खाना भी बंद हो जाएगा। कॉमनवेल्थ गेम तो हमें बस हमारी असलियत दिखा रहा है। क्या हमें आपको मीडिया को अंदाज़ा नहीं होगा कि जब हमें कॉमनवेल्थ गेम आयोजन करने कि जिम्मेदारी दी गई तो स्टेडियम बनाने से लेकर सड़क बनाने तक में दो से चार करने वाले लोग भी उसका हिस्सा बनेंगे। और ये सुरसा का मुंह कॉमनवेल्थ गेम्स में ही खुला है, ऐसा भी नहीं है। इनके मुंह में बेईमानी, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, मुफ्तखोरी के दाने हमने पहले भी डालें हैं। लेकिन कॉमनवेल्थ के घोटाले हमें इसलिए ज्यादा साल रहें हैं क्योंकि यहां बात घर की नहीं रही। आईपीएल, बोफोर्स, पीएफ घोटालों की नहीं है। यहां देश की साख को बट्टा लगा है।
सही कहूं तो ऐसा तो होना ही था। आज नहीं तो कल। क्योंकि हमने ही बबूल का पेड़ बोया है, तो अब उससे आम फल देने की उम्मीद कैसे कर सकतें हैं।