Friday, March 5, 2010

ये सीरियल क्या सिखलाता है
रात के नौ बज रहे थे। किचन में खाना बनाते समय पड़ोस की खिड़की से आवाज़ें आ रही थी। कोई फिल्मी धुन था और साथ ही एक सीरियल का थीम म्यूज़िक भी चल रही थी। समझते देर नहीं लगी कि ये फिल्मी मसाला सीरियल का है, वो भी तड़का डाल कर। सोची कि ज़रा देखूं तो सही कि विदाई की कहानी आखिर पहुंची कहां तक। टीवी ऑन किया तो देखा कि बुराई की वही चिर परिचित मुस्कान। वही आंखें घुमाना, वही सिर से पांव तक सोने और हीरे से जड़ा बदन। विलनेस का ये रूप अब नया नहीं है। एकता कपूर की गढ़ी इन खलनायिकाओं ने लोगों के दिलों में अपने लिए जितना गुस्सा भरा है, उतना ही प्रोडक्शन हाउस के लिए टीआरपी भी बटोरी है। क्योंकि सास भी कभी बहू से मॉडन खलनायिकाओं का जो दौर शुरू हुआ वो आज तक बखूबी जारी है। ये बात और है कि इन खलनायिकाओं और सती सावित्रियों से लबरेज सीरियलों का बुढ़ापा भी अब जल्दी ही आ रहा है। लेकिन कहा भी गया है न कि भागते भूत की लंगोट ही सही। सो प्रोडक्शन हाउस भी यही सोच रहें हैं कि जितना बटोर सकते हो बटोरते चलो। कहानियां चली जा रही है, सच्चाई,अच्छाई, मासूमियत, त्याग की मूर्तियों की। षडयंत्र, साजिश, बुराई की मूर्तियों की। मूर्ति भी शायद इनके छोटा होगा। इसे भीमकाय मूर्ति कहा जाना चाहिए, भीमकाय। जो भी एपिसोड देख लें, मुख्य किरदार की अच्छाई का पिटारा खत्म होता ही नहीं। बर्दाश्त करने की ताकत तो ऐसी है कि वो सुनामी जैसे तूफान को भी बड़े आराम से झेल जाए। इससे एक आइडिया भी आया है। जैसे हवा, पानी से वैज्ञानिकों ने पावर हाउस बना डाला या उसी तरह हमारे सीरियलों की देवियों से भी बिजली घर की तरह कोई प्लांट बना पातें। जैसे बर्दाश्त प्लांट, अच्छाई प्लांट, त्याग प्लांट, षड्यंत्र प्लांट। फिर जिंदगी कितनी आसान हो जाती। कोई सास अगर बहू को तंग करती हो तो उसे बर्दाश्त प्लांट ले जाओ , बर्दाश्त का पावर दो, अपने आप सास में सुधार हो जाए। कोई बहू अपनी सास को परेशान करे तो उसे त्याग प्लांट भेजो। त्याग की शॉक लगाओ, बहू लाइन पर।
क्या मैं गलत बोल रही हूं।
अब जरा विदाई की साधना को ही ले लें। पति पागल मिला, बर्दाश्त किया। सास से गालियां मिली बर्दाश्त किया। अब बहन भी निगेटिव रोल में आ गई है वो भी मंजूर। लेकिन साधना है कि भलाई पर भलाई किये जा रही है, और मुंह से एक चूं तक नहीं निकलती। इतिहास के पन्नों को पलट लें, हंसते हंसते बर्दाश्त करने का ये मिसाल कहीं नहीं मिलेगा। मिसाल मिलेगें को दूसरे सिरीयलों में ही मिलेगें।
कलर्स का हिट सीरियल उतरन को ही लें। तपस्या बचपन से ही इच्छा के साथ छल कपट कर रही है। इच्छा है कि बचपन से ही इसे झेल रही है। और तो और वक्त के साथ साथ उसमें सहने का दायरा तपस्या के षड्यंत्र के दायरे के साथ बढ़ता ही जा रहा है। तपस्या की एक एक चाल से पब्लिक वाकिफ है, इच्छा भी वाकिफ है, लेकिन तपस्या के लिए जितनी वफादार इच्छा उतनी ही वफादार उतरन के लिए उसके दर्शक।
दोस्ती के इस अजीबोगरीब मिसाल के बाद कलर्स पर आती हैं अम्मा जी और उनका कानून। सीया उनके खिलाफ लड़ने निकली, लेकिन इस सीरियल को साल से ऊपर होने को हैं लेकिन सिया जो इसमें कोई जीत हासिल कर पायी हो। सुंदर है, पढ़ी लिखी है, पिता डॉक्टर हैं, बावजूद इसके अच्छाई की भीमकाय मूर्ति लिये वो अम्मा जी के घर बर्तन साफ कर रही है। हंसी आती है उन एपिसोड को याद करके जिसमें जिला के डीएम साहब को अम्मा जी के गुंडे बेटों ने रस्सी से बांध कर पीटा था। और डीएम अपनी जान बचा कर भागने के सिवाय कुछ नहीं कर पाया।
सोचती हूं कि आखिर क्या सोच कर इन सीरियलों के निर्देशक महिलाओं का चरित्र गढ़तें हैं। या तो अच्छी या फिर बुरी। अच्छी है तो गजब की अच्छी, और बुरी है तो बेहद बुरी। क्या आज की महिलाएं वाकयी कहीं इन सीरियलों में फिट बैठतीं हैं। हम बात कर रहें हैं महिलाओं के लिए संसद में ३३ फीसदी आरक्षण की, ताकि ज्यादा से ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व महिलाओं की आवाज़ को संसद तक पहुंचा सकें। हम बात करते हैं कि क्यों महिला फाइटर प्लेन नहीं उड़ा सकती, हम पूछते हैं कि क्यों महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए पूरे सिस्टम से लोहा लेना पड़ता है। क्यों देश की सबसे बड़ी अदालत में कोई महिला जज की कुर्सी पर नहीं बैठी। ऐसा नहीं है कि इनके पास मुद्दों की कमी है। किसी न किसी सामाजिक बुराई का आधार लेकर ही सीरियल की परिकल्पना की जाती है। कहानी शुरू भी होती है समस्या मूलक अंदाज में। लेकिन गाड़ी के आगे बढ़तें ही टीआरपी के खेल पर सारी कहानियों में संशोधन शुरू हो जाता है, और गाड़ी उद्देश्य की पटरी छोड़ मनोरंजन की पटरी पर दौड़ने लगती है।
मेरा कहना बस यही है कि किस्सागोई ठीक है, लेकिन इंसानी संवेदनाओं से ऊपर उठ कर नहीं। अगर साधना के साथ अत्याचार हो रहा है तो वो उसके खिलाफ बोले, न कि मुंह पर दुपट्टा रखकर रोये। अम्मा जी की बुराई एपिसोड दर एपिसोड परवान न चढ़े, कभी तो सिया का विरोध इतना मुखर हो कि अम्मा जी उसके सामने धराशायी हो। कभी तो इच्छा तपस्या की शतरंज का मुहरा न बने, कभी तो वो अपने हक की बात करे।
मैं इसलिए उन सीरियलों की बात कर रही हूं जिसने टिआरपी की ऊंचाई को छूआ है, जिसने अपने चैनल को मालामाल किया है। लेकिन जो किस्सागोई इनपर चल रही है, वो कहीं से भी दर्शकों को अच्छी बातें नहीं सिखाती है। कहीं से भी वो महिलाओं के हक की बात नहीं करती। सिखाती है तो बस वो बर्दाश्त करना या फिर आंखें घुमा कर षडयंत्र पर षडयंत्र रचना।
वैसे तो रिमोट हमेशा हाथ में होता है और चैनल के नंबर उंगलियों पर। जो मर्जी वो देखो। किसी ने हमें नहीं बांधा है। लेकिन फंतासी की इस दुनिया में क्या कभी "उड़ान" वाला जुनून आयेगा, क्या कभी "बुनियाद" वाला अपनापन दिखेगा, क्या कभी "फौजी" वाला जज्बा होगा, क्या कभी रामायण महाभारत जैसी धार्मिक सीख मिलेगी। जवाब आप सभी जानते हैं। है न !

11 comments:

  1. बात तो बिल्कुल थीक लिखी है तुम्ने पर अफ़्सोस तो ये है कि इतना लिखे जाने के बाद भी हम जैसे दर्शक देखे तो जा ही रहे है. काश कि दर्शको की सोच मे ही बद्लव आता और क्रान्ति छोटे पर्दे पर भी होती जिस तरह बडे पर्दे पर हो रही है

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  2. ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है!आपके विचार अच्छे लगे!मेरी शुभकामनायें..@टी. वी सीरियल्स तो देखना ही बेकार है..

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  3. "सिखाती है तो बस वो बर्दाश्त करना या फिर आंखें घुमा कर षडयंत्र पर षडयंत्र रचना।" स्पर्धा जी ने कहा "फिर भी हम देखे जा रहे हैं" मैं कहूँगा "जो परोसा जायेगा हम देखते रहेंगे". सार्थक सोच लिए अच्छा आलेख

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  4. व्यंग्य के साथ अच्छी प्रस्तुति। वाह। हालात तो यही है।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  5. Aapse pooree tarah sahmat hun...isliye barson hue serial dekhe!

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  6. Pooree tarah sahmat hun aapke saath..!

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  7. सार्थक लेखन ,बधाई ।
    हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

    कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
    वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
    डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
    इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना
    और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये

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  8. एक सामयिक और सार्थक लेख्। हिन्दी ब्लाग जगत में आपका स्वागत है। शुभकामनायें।

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  9. इसलिए इसे इडियट बाक्स कहते है क्या?

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  10. atyant sunder lekhan. maja to tab aata hai jab log serials par gahma gahmi bahas bhee karte hain forgetting the fact that it is only an imagination of writer/director of the serials aur aslee jindagi se iska koee lena dena nahi hai. Given the time (and money) I would like to start a channel with only old Doordarshan serails shown on it. Rajni, Ye jo hai jindagi, Idhar-Udhar, Byomkesh bakshi, Karamchand aaj kal ke serials se to bahut hee achhe honge.

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  11. इस नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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