Sunday, October 24, 2010

आसमान में और भी तारें...

आसमान में और भी तारें...

स्कूल कॉलेजों या आम जनता के बीच एक सर्वेक्षण हो। सर्वेक्षण में एक सवाल किया जाए कि डॉक्टर डग्गूवती रामानायडू कौन हैं। पूरे उत्तर भारत में गिन कर ही कोई इसका सही उत्तर दे सकेगा। भले ही ये नाम आज की तारीख में अपना एक अलग मायने रखता है। लेकिन किसने देखा, किसने पढ़ा, किसने इस नाम पर जिक्र ही किया। न तो खबरों की हेड लाइन ही बन सका ये नाम और न ही मुख्य पृष्ठ पर 3/ 2.5 सेंटीमीटर की तस्वीर ही छपी। कौन है ये शख्स। नाम से दक्षिण भारतीय लगता है, लेकिन इस नाम के मायने क्या हैं उतर भारतीयों के लिए।
डग्गूवती रामानायडू साल को 2009 के लिए फिल्म जगत का सर्वश्रेष्ठ सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रामानायडू ने तेलगू के अलावा हिन्दी, तमिल, कन्नड़ और बंगला भाषा में कुल मिलकार तकरीबन डेढ़ सौ फिल्में बनायी हैं। रामानायडू का नाम गिनीज़ बुक ऑफ वल्ड रिकॉर्ड में सबसे अधिक और सफल फिल्में बनाने वाले निर्माता के तौर पर दर्ज हो चुका है। भारत सरकार ने तो इनकी योग्यता को काफी देर से सराहा है। 22 अक्टूबर को महामहिम के हाथों डॉक्टर रामायडू सम्मानित किये गये। खबरें बनी, महानायक को सम्मान। खबरिया चैनलों की रात की बुलेटिन हो या फिर अखबारों का मुख्य पृष्ठ। हर तरफ सिर्फ महानायक की ही चर्चा। जाहिर सी बात है कि सदी के महानायक की पदवी सिर्फ और सिर्फ अमिताभ बच्चन के नाम है। सदी के इस महानायक को फिल्म पा के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया। अमिताभ बच्चन को पा फिल्म में बेहतरीन अदाकारी के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से लेकर दर्जनों पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके हैं। और अमिताभ के काम पर किसी को न तो शक है और न ही कोई सवाल। अमिताभ आज भी यंग हैं, अमिताभ में आज भी शोले है, अमिताभ आज भी महान हैं, अमिताभ बेमिसाल हैं, अमिताभ की आज भी हर तरफ शान है। अमिताभ बच्चन को राष्ट्रीय पुरस्कार पाने का यह गौरव चौथी बार हासिल हुआ है।
अमिताभ सम्मानित किये गये, ये गौरव की बात है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि दूसरे का सम्मान कम या फिर छोटा है। उत्तरभारतीय बॉलीवुड के दिवानें हैं। हिन्दी जानने वाले जाहिर है कि दूसरी भाषा में मनोरंजन के लिए सिनेमा घरों तक नहीं जाएंगे। लोगों की भाषा की अपनी अपनी सीमाएं हैं। लेकिन राष्ट्रीय सम्मान क्षेत्रीयता से ऊपर उठ कर दिया जाता है। और हमें इस सम्मान के प्रति सम्मान रखना चाहिए। और इसमें अहम भूमिका सरकार के साथ साथ मीडिया की भी बनती है। किसी को दादा साहब फाल्के पुरस्कार की अहमियत समझाने की जरूरत नहीं है, फिर भी क्यों हेड लाइन से रामानायडू का नाम नदारत रहा, क्यों अखबरों के मुख्य पृष्ठ पर उनकी तस्वीर को जगह नही दी गई, क्यों बार बार रामानायडू का नाम दूसरी पंक्ति में लिया गया। ये दुर्भाग्य की ही बात है। यहां तुलना रामायडू और अमिताभ बच्चन की नहीं है, यहां आम जनता को देश की देश की दूसरी महान हस्तियों की उपलब्धियों से अवगत कराने की भी है। सरकार, अखबार, चैनल अगर इनकी बातें नहीं करेगा तो आम जनता कैसे जानेगी कि दक्षिण के इस निर्माता ने कन्नड़, तेलगू, तमिल के अलावा हिन्दी और बंगला में भी फिल्में बनायी है। तोहफा,बंदिश, अनाड़ी, हम आपके दिल में रहते हैं फिल्मों के निर्माता रामायडू रहें हैं। हिन्दी में ही उन्होंने “हमारी बेटी” बनायी है, जिसमें एक विकलांग लड़की के संघर्ष की कहानी है। ये कहानी बताती है कि जिंदगी की विषम परिस्थितियों में जब शरीर और किस्मत दोनों साथ न दें तब हौसलों से मंजिल हासिल की जाती है।
रामानयाडू की उपलब्धियों का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमारा समाज एक भेड़ चाल पर चलने का आदी होता जा रहा है। कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले तक कौन जानता था देश के दूसरे खेलों में भी इतनी प्रतिभा छिपी हुई है। थैंक्स मां के बारे में कितने लोग जानते हैं इसे इस साल कान फिल्म समारोह में सम्मानित किया गया। हिन्दी फिल्म भिंडी बाजार के बारे में कितने लोगों को मालूम होगा। कहना का सिर्फ एक ही मतलब है कि बाजारवाद पर आधारित खबरों की दुनिया समाज को सिर्फ चकाचौंध से रू-ब-रू कराती है। लेकिन आसमान में और भी तारें हैं जिन्हें करीब से जाना जाए तो वो भी हमारे सूरज की ही तरह दीप्तिमान है।

शिल्पी रंजन

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